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आपातकाल से पहले इंदिरा के खिलाफ व्यापक जन-असंतोष का फ़ायदा दक्षिण पंथियों ने उठाया, वही आज बांग्लादेश में दोहराया गया

- अजय तिवारी*
आपातकाल से पहले इंदिरा गांधी के खिलाफ व्यापक जन-असंतोष उमड़ा जिसका फ़ायदा दक्षिण पंथियों ने उठाया; एमरजेंसी की अक्षम्य गलती ने 1947 में आज़ादी की अगुआ कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। 
वही आज बांग्लादेश में दोहराया गया है। जन-असन्तोष जितना सच्चा है उसका फायदा उठाने वाली राजनीतिक शक्तियाँ उतनी ही प्रतिक्रियावादी हैं। 
दोनों जगह मध्यमार्गी जनतांत्रिक राजनीति की असफलता का विकल्प वामपंथ नहीं बना इसलिए दक्षिणपंथी राजनीति ने उसका फायदा उठाया। 
कुछ ज़्यादा क्रांतिकारी विचारक बंग्लादेश में "प्रतिक्रांति" पर नाखुश दिख रहे हैं। उनकी नाखुशी में जनअसंतोष को नज़रंदाज़ कर दिया गया है। 
कल हमने बंग्लादेश की स्थिति के साथ श्रीलंका को याद किया था। लेकिन कुछ दिन पहले फिलीपींस में भी यही हुआ था। 
जहाँ वामपंथ था, वहाँ अमरीका ने सीआईए को लगाकर क़त्ल-ए-आम कराया और तख्तापलट संगठित किया। ऐसी सारी प्रतिक्रांतियाँ या तो सेना के माध्यम से हुईं या धार्मिक तत्ववादियों के नेतृत्व में। 
यह बातइंडोनेशिया में, इराक में, श्रीलंका में, सर्वत्र देखने में आती है। कम्युनिस्टों का लाखों की संख्या में क़त्ल इस प्रतिक्रांति की विशेषता है। दूसरी विशेषता है इन सबके पीछे अमरीका की भूमिका।  
भारत में लोकतंत्र की प्राचीन परम्पराएँ और सांस्कृतिक सौहार्द का जीवन-अभ्यास इतना सुदृढ़ है कि वामपंथ के अभाव में भी प्रतिक्रांति निर्द्वन्द्व नहीं रही। 1947 की कांग्रेस 1977 में हारी तो जनता पार्टी में अगर जनसंघ शामिल थी तो सोशलिस्ट पार्टी भी शामिल थी; रजवाड़ों की स्वतंत्र पार्टी थी तो किसानों की लोकदल भी थी। 
सन् 2024 के बाद भी आरएसएस और भाजपा अकेले सत्ता पर काबिज होने की स्थिति में नहीं रहे। अपनी मूलभूत जनतांत्रिक आत्मा के साथ-साथ भारत में अमरीका का एकांत दबदबा नहीं रहा है। पूर्व समाजवादी देशों से हमारे गहरे सम्बन्धों ने आंतरिक प्रतिक्रियावाद को मिलने वाली बाहरी सहायता को नियंत्रित रखा। हमारी गुटनिरपेक्षता की नीतियों ने हमारी रक्षा की और अमरीका-परस्ती के बावजूद तटस्थता बनी रही है। इसके लिए हमारा आर्थिक आधार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 
बंग्लादेश में आर्थिक आधार सुदृढ़ नहीं बन पाया है अतः अमरीका पर निर्भरता बहुत ज्यादा है। जो थोड़े साधन हैं उनकी लूट में सत्तारूढ़ दल अग्रणी भूमिका निभाता है। 
दूसरी ओर, आज़ादी के आंदोलन के समय से ही पूर्वी बंगाल में मुस्लिम लीग की भूमिका के कारण साम्प्रदायिक राजनीति का बोलबाला रहा है। 1971 की क्रांति ने साम्प्रदायिकता को परास्त किया था। लेकिन पिछड़ी आर्थिक दशा और साम्प्रदायिक राजनीतिक वातावरण के चलते प्रतिक्रांति की ज़मीन बनी रही है। 
जब जनअसंतोष विस्फोटक बिंदु पर पहुँचा तब उसका फायदा कभी सेना ने, कभी दक्षिणपंथी दलों ने उठाया। अभी सेना की भूमिका निर्णायक नहीं है लेकिन दक्षिणपंथी दल एकजुट होकर सत्ता पर कब्ज़ा करने की तैयारी में हैं। 
अफसोस की बात है कि मुजीब की बेटी को एक ओर अमरीका-ब्रिटेन का समर्थन है, दूसरी ओर भारत की मोदी सरकार का। 
यह विडंबना है कि बंग्लादेश की मध्यमार्गी सत्ता को भारत के दक्षिणपंथ का समर्थन है!!
फिर भी यह आशंका बहुत व्यापक रूप में अभिव्यक्त हो रही है कि श्रीलंका (और फिलीपींस) की घटनाओं का असर भारत पर भी पड़ सकता है!!! 
यह सब इसपर निर्भर है कि वामपंथी और जनतांत्रिक शक्तियाँ किस सीमा तक जनअसंतोष को समाज के लिए संगठित कर पाती हैं। अन्यथा, पूँजीवादी वर्चस्व की उत्तर-आधुनिक दुनिया में प्रतिक्रांति के लिए समर्थन की कमी नहीं है। वह सारे ताकतवर देशों से मिलेगा।
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*स्रोत: फेसबुक

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