टी एस इलियट कहते थे कि वे बुखार में कविता लिखते हैं। उनकी अनेक प्रसिद्ध कविताएँ बुखार की उतपत्ति हैं। कुछ नाराज़ किस्म के बुद्धिजीवी इसका अर्थ करते हैं कि बीमारी में रची गयी ये कविताएँ बीमार मन का परिचय देती हैं।
मेँ कोई इलियट का प्रशंसक नहीं हूँ। सभी वामपंथी विचार वालों की तरह इलियट की यथेष्ट आलोचना करता हूँ। लेकिन उनकी यह बात सोचने वाली है कि बुखार में उनकी रचनात्मक वृत्तियॉं एक विशेष रूप में सक्रिय होती हैं जो सृजन के लिए अनुकूल है।
इलियट रोमांटिक साहित्य के विरोधी थे। इंग्लैंड के उदाहरण के लिए डॉ. उमाकांत द्विवेदी का आह्वान करता हूँ। पर हिंदी के उदाहरण हम सबकी उँगलियों पर हैं। खुद रोमांटिक साहित्य के श्रेष्ठ सर्जक निराला इलियट से खासे नाराज़ थे। कुकुरमुत्ता में उन्होंने लिखा:
"कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा
टी एक इलियट ने दे मारा
पढ़ने वालों ने
जिगर पे रखकर हाथ ये कहा
--लिख दिया जहाँ सारा!"
वह हिंदी में प्रयोगवाद का समय था।
अगर गौर करें तो निराला की बहुत सी श्रेष्ठ कविताएँ और गद्य रचनाएँ उनके अस्वस्थता के समय की रचना हैं!
इसमें कोई रहस्य नहीं है। बीमारी में मनुष्य का मन एक धरातल पर कमीना हो जाता है लेकिन दूसरे धरातल पर उदात्त भी हो जाता है। यह व्यक्ति की आंतरिक वृत्तियों पर निर्भर है कि उसका मन कमीनेपन की ओर ज़्यादा झुकता है या उदात्त की ओर। रचनाकार चाहे जैसा हो, निराला की तरह उदात्त या इलियट की तरह प्रतिक्रियावादी, वह साधारण लोगों से बहुत अलग होता है। इसलिए अस्वस्थ होने पर उसकी चेतना के अनेक स्तर व्यापक पीड़ा का दर्पण बन जाते हैं। यहीं, मामूली से मामूली रचनाकार दूसरे से ऊपर आसन पर बैठता है।
दरअसल, दुःख की साझेदारी पहचानने के लिए मिर्ज़ा ग़ालिब सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं।
हर तरफ से, हर तरह के आघात ग़ालिब की निजता को बनाने में सक्रिय हैं। ग़ालिब ने यों ही नहीं कहा था कि 'मुश्किलें इतनी पड़ीं मुझपर कि आसाँ हो गयीं'! दोस्त मिले तो वह भी ऐसे कि 'हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमाँ क्यों हो'? इसमें 'क्यों हो' का अर्थ है तुम दोस्त हो तो असमान भी दुश्मन बन जाता है।
परिवार भी कोई शान्त सुखद नहीं था। एक के बाद एक बच्चे मरते जा रहे थे। घर मरघट बन गया था। ग़ालिब का ही जिगरा था कि कहें:
"कोई वीरानी सी वीरानी है?
दस्त को देखके घर याद आया!"
मरघट को वीरानी का प्रतिमान समझने वाले देखें कि ग़ालिब ललकार रहे हैं। वीरानी देखना है तो मेरा घर देखो!
कहने को यह अपनी हालत का वर्णन है। लेकिन इसमें कितने मनुष्यों का सच मौजूद है! जब मन अपने निजी दुःख की परिधि से बढ़कर बहुत बड़े समाज की सच्चाई अनुभव करने लगता है तब वह उदात्त होता है और श्रेष्ठ रचना का जन्म होता है। इलियट की इच्छा के विपरीत ऐसी स्थिति रोमांटिक लेखकों में आती है, प्राक् आधुनिक लेखकों में आती है, आधुनिकतावादी लेखकों में भी आती है।
बस शर्त एक ही है। मन उदात्त स्तर पर सध गया हो!
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