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बाबासाहेब की उपेक्षा करने का आरोप लगाना सच को सिर के बल खड़ा करने जैसा है

- राम पुनियानी 
इस 14 अप्रैल (2025) को देश ने अम्बेडकर जयंती मनाई. कई लोग इस दिन को ‘समानता दिवस‘ के रूप में मनाते हैं, जो पूरी तरह उपयुक्त है. देश भर में इस अवसर पर व्याख्यान और संगोष्ठियां आयोजित की गईं जिनमें समानता एवं लोकतंत्र के पक्षधर आंदोलनों एवं उनसे संबंधित विचारधारा के अग्रदूत डॉ अम्बेडकर के विचारों और मूल्यों को याद किया गया. दिलचस्प बात यह है कि जिनका एजेंडा हिंदू राष्ट्र का है, जो अम्बेडकर के मूल्यों के धुर विरोधी हैं और जिनकी विचारधारा का आधार 'मनुस्मृति' है, वे भी इस दिन उनकी तारीफों के पुल बांधते हैं. उनका पवित्र ग्रन्थ 'मनुस्मृति' जाति प्रथा एवं पितृसत्तात्मकता के मूल्यों की वकालत करता है.
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अम्बेडकर की दिखावटी प्रशंसा करते हुए उनकी तुलना आरएसएस के संस्थापक के.बी. हेडगेवार से की. "दोनों ने अपना जीवन सामाजिक विकास के लिए समर्पित कर दिया और दोनों देश की तरक्की की अभिलाषा रखते थे," भागवत ने कहा. अम्बेडकर के सामाजिक समानता, लोकतांत्रिक संघवाद एवं जाति के उन्मूलन के सपने और आरएसएस के संस्थापक के प्राचीन ग्रंथों पर आधारित हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य और जाति प्रथा और पितृसत्तात्मकता समर्थक दृष्टिकोण के बीच आखिर क्या समानता हो सकती है? ये दोनों तो विपरीत ध्रुव हैं. लेकिन चूंकि चुनावी मजबूरियों के चलते बाबासाहेब को श्रद्धांजलि अर्पित करना अनिवार्य है, इसलिए भागवत को खीचांतानी करके किसी तरह बाबासाहेब को अपने प्रेरणास्त्रोतों की सूची में शामिल करना पड़ता है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इस नौटंकी में पीछे नहीं रहे और उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना करते हुए कहा, "कांग्रेस संविधान को नष्ट करने में जुटी है. डॉ अम्बेडकर समानता लाना चाहते थे...वे चाहते थे कि हर गरीब, हर पिछड़ा सिर ऊंचा करके गरिमामय जीवन जी सके, वह सपने भी देख सके, और उन्हें पूरा भी कर सके...कांग्रेस ने हमेशा दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार किया है‘‘.
यहां नरेन्द्र मोदी तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं. यह सच है कि अम्बेडकर ने कई बार गांधीजी और कांग्रेस की आलोचना की थी. लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने, विशेषकर सामाजिक बराबरी के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए, सबसे ज्यादा संवाद और विचार-विमर्श गांधीजी और कांग्रेस के साथ ही किया था. दलितों के हितों की उपेक्षा करने के लिए गांधीजी की बहुत आलोचना की जाती है. ‘पूना पैक्ट' के खिलाफ बहुत कुछ कहा जाता है. पर कुल मिलाकर यह दलितों के हित के लिए उठाया गया सबसे व्यावहारिक कदम था. गांधीजी अम्बेडकर के नजरिए से बहुत प्रभावित हुए, उन्हें जातिप्रथा की बुराईयों का अधिक गहराई से एहसास हुआ और उन्होंने अछूत प्रथा के उन्मूलन को अगले दो सालों के लिए अपना एक मुख्य मिशन बना लिया. बहुत से गांवों में जाकर उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि दलितों को मंदिरों को प्रवेश करने दिया जाए और गांव के कुओं से पानी भरने दिया जाए. यह बहुत से कांग्रेस कार्यकर्ताओं का भी मिशन बन गया.
इसी दौरान भाजपा के विचारधारात्मक संस्थापक जाति प्रथा के मूल्यों की तारीफों के पुल बांध रहे थे और तर्क दे रहे थे कि इसी प्रथा ने हिंदू समाज को स्थिरता प्रदान की! अम्बेडकर की अतुलनीय देशसेवा को राष्ट्रीय नेताओं ने मान्यता दी और वे अत्यंत उत्सुक थे कि अम्बेडकर संविधानसभा का हिस्सा बनें. सविता अम्बेडकर अपनी जीवनी ‘बाबासाहेबः माई लाईफ विथ डॉ अम्बेडकर‘ में संविधानसभा के अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद, भावी प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, गृहमंत्री सरदार पटेल, लोकसभा अध्यक्ष जी. मावलंकर और बंबई राज्य के मुख्यमंत्री बीजी खेर के बीच हुए पत्रव्यवहार को उद्धत करते हुए इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि किस प्रकार कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता चाहते थे कि उनके पति संविधानसभा के लिए निर्विरोध चुने जाएं. सरदार पटेल ने मावलंकर को 5 जुलाई 1947 को लिखे गए पत्र में लिखा, "डॉ अम्बेडकर का नामांकन प्रधानमंत्री को भेज दिया गया है. मुझे उम्मीद है कि कोई मुकाबला नहीं होगा और वे निर्विरोध निर्वाचित होकर 14 तारीख को यहां आ सकेंगे".
कांग्रेस ने यह सुनिश्चित किया कि बाबासाहेब संविधानसभा के लिए निर्वाचित हों और उसकी मसविदा समिति के अध्यक्ष बनें. बाबासाहेब के योगदान और भागीदारी को कांग्रेस का अच्छा-खासा समर्थन मिला और इसके नतीजे में भारतीय संविधान का निर्माण हुआ. इसके विपरीत भाजपा की पितृ संस्था आरएसएस के मुखपत्र 'द आर्गनाईजर' ने कटाक्ष किया कि इस संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है. आरएसएस के विचारधारात्मक मार्गदर्शक और हमराही सावरकर भी संविधान के खिलाफ थे और उन्होंने कहा था कि "मनुस्मृति ही भारत का संविधान है‘‘.
इसी तरह अम्बेडकर ने हिंदू कोड बिल का मसविदा तैयार करने की जिम्मेदारी निभाई, और नेहरू ने उनका पूरा साथ दिया. इसका कांग्रेस के कुछ तत्वों ने विरोध किया, लेकिन इसका विरोध मुख्यतः हिंदू राष्ट्रवाद के विचारकों ने किया, जिन्होंने 12 दिसंबर 1949 को अम्बेडकर का पुतला दहन किया. जहां आरएसस-भाजपा हिंदुत्व के ब्राम्हणवादी संस्करण का परचम लहरा रहे थे वहीं बाबासाहेब पहले ही यह घोषणा कर चुके थे कि उन्होंने हिंदू के रूप में जन्म लिया है पर वे हिंदू के रूप में मरेंगे नहीं.
इसी तरह जब आरएसस हिंदू राष्ट्र की बातें कर रही था तब बाबासाहेब ने पाकिस्तान पर अपनी पुस्तक के संशोधित संस्करण में इसका विरोध इस आधार पर किया था कि इससे हिंदू राज का मार्ग प्रशस्त हो सकता है जो हमारे लिए सबसे बड़ी त्रासदी होगा. भाजपा की हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा, बाबासाहेब के जाति के उन्मूलन के सपने के पूरी तरह खिलाफ है. मोदी की विचारधारा अम्बेडकर की गहन विरोधी है. मोदी की पितृ संस्था आरएसएस ने सामाजिक समरसता मंच का गठन किया है, जो जातियों के उन्मूलन के बजाए उनमें सामंजस्य की बात करता है.
वर्तमान में कई विचारक तर्क दे रहे हैं कि चूंकि जाति का उन्मूलन करना आसान नहीं है, इसलिए हमें उपजातीय पहचानों को सशक्त करना चाहिए ताकि उन्हें और अधिक विशेषाधिकार मिल सकें! यह हमारे संविधान के मूलभूत सिद्धांत, बंधुत्व, के लिए एक विपदा की तरह होगा. आरएसएस दलितों के एक तबके को भी सोशल इंजीनियरिंग और अन्य तरीकों से अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रहा है. आरएसएस से जुड़े संगठन दलितों की उप-जातियों के नए-नए नायक गढ़ रहे हैं और उन्हें पितृसत्तात्मकता और जातिगत ऊंचनीच के मूल्यों के लैस कर रहे हैं. और साथ ही वे उन्हें मुस्लिम-विरोधी भी बना रहे हैं.
मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के निर्णय पर भाजपा की प्रतिक्रिया से उसका असली चरित्र उजागर होता है. मंडल आयोग सामाजिक न्याय की स्थापना की दिशा में एक बड़ा कदम था. चुनावी कारणों से भाजपा ने उसका खुलकर विरोध नहीं किया मगर अपने राममंदिर आन्दोलन को और तेज़ कर दिया. भाजपा जिस तरह से पहचान से जुड़े नए-नए मुद्दे उठा रही है और सामाजिक न्याय की राह में रोड़े अटका रही है वह सचमुच शर्मनाक है. उसने वंचित युवाओं के एक हिस्से को अपने लठैत बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है. ये लोग नंगी तलवारें लेकर मस्जिदों के सामने नाचते हैं.  
कांग्रेस के राहुल गाँधी ने सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए संविधान को ठीक ढंग से लागू करने पर जोर दिया है. दलितों और ओबीसी के हालात के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराना और उस पर बाबासाहेब की उपेक्षा करने का आरोप लगाना सच को सिर के बल खड़ा करने जैसा है. भाजपा-आरएसएस जो कर रहे हैं वह उल्टा चोर कोतवाल को डांटे है. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं

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