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स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने के बजाय बीमा आधारित सेवाओं को प्राथमिकता क्यों?

- राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकार अभियान 

वैश्विक स्तर पर “विश्व स्वास्थ्य दिवस” इस साल “हमारा स्वास्थ्य, हमारा अधिकार” की अवधारणा को केन्द्रित कर मनाया जा रहा है। इस उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य अधिकार संघर्ष को मजबूत करने के लिए, संवैधानिक और नीतिगत रूप में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाने के लिए, स्वास्थ्य के विभिन्न आयामों को लोगों के हक के लिए संगठित करने, जागरूक करने और स्वास्थ्य के मानकों पर कार्य करने हेतु तथा सरकार को जनता के प्रति जिम्मेदार बनाने हेतु जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय ने स्वास्थ्य अधिकार अभियान के माध्यम से जनता के पक्ष को मजबूत करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य अधिकार के मुद्दे पर सक्रिय रूप से कार्य करेगा।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकार अभियान के साथियों* ने 7 अप्रैल से 14 अप्रैल 2024 तक साप्ताहिक स्वास्थ्य अधिकार अभियान चलाने का निर्णय लिया है। पिछले 10 सालों मे स्वास्थ्य के कार्यों का लेखा जोखा जनता के समक्ष पेश किया जाएगा। साथ ही जनता के स्वास्थ्य के मुद्दों पर राजनीतिक दलों, जन प्रतिनिधियों को रिपोर्ट कार्ड सौंपा जाएगा और जन केन्द्रित स्वास्थ्य व्यवस्था को लागू करने के लिए हर स्तर पर पहल की जाएगी। इस उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकार अभियान ने स्वास्थ्य अधिकार पत्र जारी किया गया।  
विस्तृत जानकारी के लिए संलग्न दस्तावेज़ पढ़ें:
देश में स्वास्थ्य व्यवस्था काफी चुनौतीपूर्ण बन चुकी है। हम सब ने कोविड -19 महामारी के दौरान देखा है कि स्वास्थ्य सेवाएँ जनता की पहुँच से दूर हो गई थी और लोगों तक मुफ्त/ कम खर्च में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य व्यवस्था उपलब्ध करवाने में वर्तमान सरकार विफल रही। पूरी दुनिया सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवाओं की पैरवी कर क्रियान्वित कर रही है। भारत में भी सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करके प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को सख्त शर्तों के साथ क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। पिछले 10 सालों में जनता का स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ गया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल 2022 के अनुसार देश में स्वास्थ्य पर लगभग तीन-चौथाई खर्च परिवारों द्वारा वहन किया जाता है और केवल एक-चौथाई सरकार द्वारा किया जाता है। जिसका सीधा असर पहले से ही कमजोर, वंचित और गरीबों को कर्ज के जाल में फंसा देता है।अस्पताल में भर्ती होने के 40 प्रतिशत से अधिक प्रकरणों में इलाज के लिए पैसों की व्यवस्था या तो संपत्ति बेचकर या कर्ज लेकर पूरी की जाती है। लगभग 82 प्रतिशत बाह्य रोगी देखभाल निजी क्षेत्र से प्राप्त करते है, जो लगभग पूरी तरह से अपनी जेब से खर्च करके पूरा किया जाता है, यह गरीबों के लिए अक्सर चुनौतीपूर्ण होता है। 
जहाँ एक ओर ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 5% खर्च करने की सिफारिश कर रहा है वहीं भारत में सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1.2% राशि स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवंटित किया जा रहा है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन प्राथमिक सेवाओं को मजबूत करने के उद्देश्य से क्रियान्वित किया गया था, परंतु पिछले कुछ सालों से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का बजट लगातार कम किया जा रहा है। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को बढ़ाने और मजबूत करने की जगह वर्ष 2019 में नीति आयोग ने जिला अस्पतालों को निजी हाथों में सौपने की शुरुआत कर चुका है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश नीति आयोग की इस जनविरोधी नीति को लागू करने में अग्रणी है। यह आम जनता की आर्थिक और सत्ताधिशों से राजनीतिक लूट का आधार बनेगा जरूर। 
हमारी सरकार सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने के बजाय बीमा आधारित स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता दे रही है, जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही देश में आधे से अधिक जनता बीमा आधारित स्वास्थ्य सेवाओं से दूर है और आयुष्मान भारत योजना जनता के छोटे से हिस्से को कवर करता है। उसमे भी  भ्रष्टाचार के अनगिनत मामले सामने आए हैं। 
चुनावी बॉन्ड घोटाले में यह स्पष्ट रूप से सामने आया है कि 35 अग्रणी फार्मा कंपनियों ने 799.66 करोड़ का चंदा दिया है, जो सरकार द्वारा केंद्रीय बजट 2024-25 में 'फार्मास्युटिकल उद्योग के विकास' के तहत आवंटित राशि के आधे से अधिक है। दवा कंपनियाँ दवा की कीमते बढ़ा रही है, जिस पर लगाम लगाने की बजाय सरकार उनसे चंदा ले रही है। जिनके वेक्सिन परीक्षण में सही नहीं निकले, उन्हे भी चंदा लेकर व्यापार से कमाई की छुट देना अवैध नहीं, अमानवीय कार्य हुआ हौ। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 के अनुसार देश में 67.1% बच्चे कुपोषित  हैं और लगभग 57% महिलाएँ खून की कमी से ग्रसित है। 
आज देश में असमानता गैरबराबरी अपने चरम पर है।वर्तमान में देश के 1% अमीरों के पास कुल आय का 22.6% है वहीं  कुल संपत्ति का 40.1% हिस्सा उनके पास है। रिजर्व बैंक के ताजा बुलेटिन के अनुसार बिना किसी सामाजिक सुरक्षा, किफ़ायती स्वास्थ्य सेवाओं और रोजगार गारंटी के अभाव में 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे आ गए हैं। साथ ही बुलेटिन में स्पष्ट रूप से कहा है कि जिस देश में जनता पर खर्च ठीक से होता है वहाँ मुद्रा स्फीति और राजस्व प्राप्तियाँ भी उसी अनुपात में बढ़ती है। 
साल 2014 में भारत स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता सूचकांक में 85 वें स्थान से, वर्ष 2022 में 146 नंबर पर पहुँच गया है। वहीं भूखमरी के मामले में 55 नंबर से गिरकर 107 नंबर पर पहुँच गया है और लिंग समानता के मामले में  114 से 135 नंबर पर आ गया है।
एक राष्ट्र के रूप में हम स्वास्थ्य के इन आंकड़ों को स्वीकार नहीं कर सकते हैं जब हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया के विकसित राष्ट्रों, अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी, के बाद पांचवे स्थान पर आती हो वहीं स्वास्थ्य की स्थितियां  कई मायनों में श्रीलंका, बांगलादेश जैसे कमजोर देशों से भी पीछे है। एक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की जरूरत को देश की जनता के साथ हमारी सरकारों ने भी कोविड महामारी के दौरान स्पष्ट रूप से महसूस किया है और हम सभी गवाह हैं कि आज देश की स्वास्थ्य व्यवस्था किस दिशा में जा रही है। 
कोविड महामारी के दौरान स्वास्थ्य आपातकाल की परिस्थितियों का गहराई से अनुभव करने के बाद भी हमारे देश के कर्ताधर्ताओं द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य की अनदेखी करना समझ से परे है। इसका सीधा मतलब यही निकाला जा सकता हैं कि देश की वर्तमान सरकार जो कि जनता के द्वारा चुनी गई है परंतु जनता के प्रति जवाबदेह नहीं हैं बल्कि देश के अरबपतियों और उद्योग घरानों के प्रति वफादार है। इससे और स्पष्ट होता है कि वर्तमान सरकारों की प्राथमिकताएँ जनता को स्वास्थ्य शिक्षा, रोजगार जैसी मूलभूत सेवाएँ उप्लबद्ध कराना नहीं बल्कि किसी भी प्रकार से सत्ता की कुर्सी को पाना है। 
आज देश की जनता को स्वास्थ्य अधिकार की  जरूरत है परन्तु सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य को मजबूत करने के बजाय सार्वजनिक स्वास्थ्य को निजी हाथों सौंपकर जनता के स्वास्थ्य सेवाओं को हाशिये पर लाने का  काम कर रही है। बंद कमरों में जन विरोधी नीतियों को बनाकर जनता पर थोपा जा रहा है, हालिया उदाहरण मध्यप्रदेश के 13 मेडिकल कालेजों में विभिन्न पेथालोजी और अन्य जाँचे बिना किसी पारदर्शी प्रक्रिया के निजी हाथों में देने का निर्णय है। नीति आयोग ने देश के स्वास्थ्य के ढाँचे के आधारस्तम्भ, जिला अस्पतालों को निजी मेडिकल कालेजों को सौंपने का जन विरोधी निर्णय ले लिया है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। कुछ राज्य राज्य सरकारें तो नीति आयोग के अनुसार काम भी शुरू कर दिया है। जनता को स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसी मूलभूत सेवाएँ देना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है इसे नकारा नहीं जा सकता है। संविधान का अनुच्छेद 21, जीवन जीने का अधिकार, देश की जनता को इन सभी मूलभूत सेवाओं को पाने का अधिकार देता हैं।  
‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकार अभियान’ उपरोक्त परिस्थितियों में निम्न मुद्दे आपके समक्ष रखना चाहत हैं और उम्मीद करता है कि जनता के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए आप हमारे मुद्दों का समर्थन करेंगे और सरकार में आने पर जनहित में सार्वजनिक स्वास्थ्य की  मजबूती की दिशा में कार्य करेंगे:-
  • देश में एक मजबूत “स्वास्थ्य अधिकार कानून” बनाकर लागू किया।  सभी राज्य सरकारों को एक निर्धारित समय सीमा ने स्वास्थ्य अधिकार कानून बनाकर इसे लागू किया जाए। 
  • राज्य सरकार अपने बजट का कम से कम 10% या 5000 प्रति व्यक्ति हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्चा करे। 
  • देश की जनता को सर्वसुलभ गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएँ शासन की ओर से देने के लिए स्वास्थ्य बजट को सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 5% आवंटन किया जाए। 
  • ‘आयुष्मान भारत योजना’ जैसी बीमा आधारित स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा देने की बजाय सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत किया जाए। स्वास्थ्य क्षेत्र के सभी अस्पतालों में डाक्टर और पेरा मेडिकल स्टाफ की पर्याप्त बहाली की जाए। हेल्थ इंफ्रा स्ट्रक्चर को मजबूत किया जाए।
  • व्यावसायिक,परमाणु विकिरण और पर्यावरणीय स्वास्थ्य के लिए एक समग्र नीति बनाई जाए और सभी विकास परियोजनाओं के लिए स्वास्थ्य पर असर का आंकलन अनिवार्य किया जाए। 
  • सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाएँ, इलाज, दवाइयाँ, विभिन्न जाँचे देश की जनता को बिना किसी भेदभाव के सार्वभौमिक रूप से सभी के लिए मुफ्त में उपलब्धता सुनिश्चित होना चाहिए। 
  • स्वच्छ पानी, पोषक आहार, रोजगार, के साथ ही स्वास्थ्य के अन्य घटकों की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।
  • स्वास्थ्य के क्षेत्रों में निजी भागीदारी अस्वीकार है। स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में सार्वजनिक निजी भागीदारी मॉडल के साथ साथ सभी प्रकार के निजी हस्तक्षेप को खत्म किया जाए।
  • निजी अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों की निगरानी, जिम्मेदारी और इलाज की दर तय करने के लिए ‘क्लिनिकल इस्टेब्लिशमेंट कानून, 2010’ और नियमों को पूरे देश में समरूपता के साथ लागू किया जाए।  
  • निजी अस्पतालों की कमाई को भी टैक्स के दायरे में लाया जाए।  
  • हवा, पानी और अन्य प्रदूषण को कम करने के लिए पर्यावरणीय नियमो और कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाए तथा जल, तालाब, नदियों को प्रदूषण से बचाए और अवैध रेत खनन से हो रहे हवा जल का प्रदूषण रोके। 
  • दवाओं की कीमत पर नियंत्रण लागू किया जाए खासकर जीवन रक्षक और आवश्यक दवाओं की कीमतों का नियंत्रण मजबूती से लागू किया जाए और इसके लिए प्रभावी निगरानी तंत्र बनाए जाए। जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा दिया जाए। 
  • सभी प्रकार की दवाओं से जीएसटी हटाया जाए, सभी दवाएँ करमुक्त की जाए।
  • देश के जिला अस्पतालों को निजी मेडिकल कालेजों को देने के नीती आयोग के निर्णय को वापस लिया जाए।  
  • जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाए और रसायनिक एवं जेनेटिक मोड़िफाइड खाद्य फसलों की खेती पर रोक लगाई जाए।
  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को स्थानिक परिस्थितियों के अनुसार लागू किया जाए और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक किया जाए। 
  • हर गाँव और बस्ती में 3000 की जनसंख्या पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए।
  • आशा कार्यकर्ताओं और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को नियमित किया जाए और मानधन बढ़ाया जाए। 
  • स्वास्थ्य सेवाओं को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए एक मजबूत तंत्र बनाया जाए और पारदर्शिता सुनिश्चित किया जाए।  
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*राजकुमार सिन्हा, सुरेश राठोर, अमूल्य निधि, सुहास कोल्हेकर, मेधा बहन, डॉ घनश्याम दास वर्मा, महेंद्र यादव, अनिल गोस्वामी, कैलाश मीणा, मोहन सुल्या, चेतन सालवे, हेमलता कंसोटिया, विनोद पटेरिया, राहुल यादव, राकेश चांदौरे, पूजा, पूनम कनोजिया, आशीष  

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