भारत में वास्तविक मज़दूरी 2014-15 के बाद से नहीं बढ़ी है, जबकि देश की जीडीपी जरूर बेहतर हुई है। इस दौरान देश की सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था भी थम सी गई है। देश के अनौपचारिक श्रमिकों का जीवन बेहद अनिश्चित है, खासकर झारखंड जैसे राज्यों में जहां अनौपचारिक रोजगार लाखों लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत है।
लोकतंत्र बचाओ 2024 अभियान द्वारा बुलाई गई प्रेस वार्ता में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ और रीतिका खेरा द्वारा प्रस्तुत ये कुछ निष्कर्ष हैं। 2014-15 के बाद से वास्तविक मजदूरी में न के बराबर बढ़ोतरी के साक्ष्य पांच अलग-अलग स्रोतों से उपलब्ध हैं, जिनमें से तीन आधिकारिक हैं: श्रम ब्यूरो डेटा, पिरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS), कृषि मंत्रालय, सेंटर फॉर मोनिट्रिंग द इंडियन ईकानमी (CMIE), और सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एण्ड आक्शन (CLRA)। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण स्रोत श्रम ब्यूरो की ग्रामीण भारत में मजदूरी दर (डब्ल्यूआरआरआई) की श्रृंखला है, जिसका सारांश संलग्न ग्राफ में दिया गया है। ऐसी ही स्थिति अधिकांश व्यवसायों, कृषि और गैर-कृषि पर लागू होता हैं।
2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई, तब तक अनोपचारिक क्षेत्र पर इन पाँच सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों का सकारात्मक प्रभाव पड़ना शुरू हो गया था: सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा), मातृत्व लाभ, सामाजिक सुरक्षा पेंशन, और आईसीडीएस एवं मध्याह्न भोजन कार्यक्रम के तहत बाल पोषण योजनाएं। इन पांचों को एनडीए ने किसी न किसी तरह से कमजोर कर दिया है। उदाहरण के लिए, पिछले 10 वर्षों में आईसीडीएस और मध्याह्न भोजन के लिए केंद्रीय बजट में वास्तविक रूप से 40% की गिरावट आई है; मातृत्व लाभ प्रति परिवार एक बच्चे तक सीमित कर दिया गया है; राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के तहत सामाजिक सुरक्षा पेंशन में केंद्रीय योगदान मात्र 200 रुपये प्रति माह पर स्थिर हो गई है; नरेगा मजदूरी दर वास्तविक रूप से स्थिर हो गई है और ज्यादातर भुगतान समय पर नहीं मिलता है; और 2021 में जनगणना ना होने के कारण पुराने जनसंख्या के आंकड़ों को इस्तिमाल करने की वजह से तकरीबन 10 करोड़ से अधिक व्यक्ति अभी भी पीडीएस से बाहर है। झारखंड में ही तकरीबन 44 लाख लोग जिन्हे राशन मिलना चाहिए अभी भी नहीं मिल रहा है।
एनडीए सरकार ने थोड़ा बहुत शौचालय (स्वच्छ भारत), एलपीजी कनेक्शन (उज्वला योजना) और प्रधान मंत्री आवास जैसी अपनी पसंदीदा योजनाओं में खर्च बढ़ा कर इस गिरावट की भरपाई की है। इन योजनाओं की उपलब्धियाँ मोदी सरकार के दावों से बेहद कम हैं। उदाहरण के लिए, एनडीए सरकार ने 2019 में भारत को "खुले में शौच मुक्त" घोषित किया, लेकिन 2019-21 के एनएफएचएस-5 डेटा से पता चलता है कि लगभग 20% घरों में शौचालय की सुविधा नहीं थी।
अगर पुरानी और नई कल्याणकारी योजनाओं पर केंद्र सरकार का खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के हिस्से के रूप में समझने की कोशिश की जाए, तो पता चलेगा की मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद पहले की तुलना में योजनाओं पर खर्च गिर गया है। सिर्फ कोविड-19 संकट के दौरान एक संक्षिप्त वृद्धि हुई थी उसे छोड़कर खर्चा अटका हुआ है (ग्राफ नो 2 देखें)। मोदी सरकार अक्सर पुरानी योजनाओं का नाम बदल कर उन्हें अपनी योजना बनाने की कोशिश करती है, और पुरानी योजनाओं को खतम करके अपनी योजना से बदल लेती है। यह चीज़ यूपीए सरकार के तहत हुए सामाजिक सुरक्षा के बदलावों के विपरीत है। एनडीए सरकार अपने उदार कल्याण खर्च के लिए लोगों के बीच जानी जाती है, लेकिन यह दावा आंकड़ों एवं तथ्यों में नहीं दिखता है।
लोकतंत्र बचाओ 2024 अभियान द्वारा बुलाई गई प्रेस वार्ता में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ और रीतिका खेरा द्वारा प्रस्तुत ये कुछ निष्कर्ष हैं। 2014-15 के बाद से वास्तविक मजदूरी में न के बराबर बढ़ोतरी के साक्ष्य पांच अलग-अलग स्रोतों से उपलब्ध हैं, जिनमें से तीन आधिकारिक हैं: श्रम ब्यूरो डेटा, पिरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS), कृषि मंत्रालय, सेंटर फॉर मोनिट्रिंग द इंडियन ईकानमी (CMIE), और सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एण्ड आक्शन (CLRA)। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण स्रोत श्रम ब्यूरो की ग्रामीण भारत में मजदूरी दर (डब्ल्यूआरआरआई) की श्रृंखला है, जिसका सारांश संलग्न ग्राफ में दिया गया है। ऐसी ही स्थिति अधिकांश व्यवसायों, कृषि और गैर-कृषि पर लागू होता हैं।
2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई, तब तक अनोपचारिक क्षेत्र पर इन पाँच सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों का सकारात्मक प्रभाव पड़ना शुरू हो गया था: सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा), मातृत्व लाभ, सामाजिक सुरक्षा पेंशन, और आईसीडीएस एवं मध्याह्न भोजन कार्यक्रम के तहत बाल पोषण योजनाएं। इन पांचों को एनडीए ने किसी न किसी तरह से कमजोर कर दिया है। उदाहरण के लिए, पिछले 10 वर्षों में आईसीडीएस और मध्याह्न भोजन के लिए केंद्रीय बजट में वास्तविक रूप से 40% की गिरावट आई है; मातृत्व लाभ प्रति परिवार एक बच्चे तक सीमित कर दिया गया है; राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के तहत सामाजिक सुरक्षा पेंशन में केंद्रीय योगदान मात्र 200 रुपये प्रति माह पर स्थिर हो गई है; नरेगा मजदूरी दर वास्तविक रूप से स्थिर हो गई है और ज्यादातर भुगतान समय पर नहीं मिलता है; और 2021 में जनगणना ना होने के कारण पुराने जनसंख्या के आंकड़ों को इस्तिमाल करने की वजह से तकरीबन 10 करोड़ से अधिक व्यक्ति अभी भी पीडीएस से बाहर है। झारखंड में ही तकरीबन 44 लाख लोग जिन्हे राशन मिलना चाहिए अभी भी नहीं मिल रहा है।
एनडीए सरकार ने थोड़ा बहुत शौचालय (स्वच्छ भारत), एलपीजी कनेक्शन (उज्वला योजना) और प्रधान मंत्री आवास जैसी अपनी पसंदीदा योजनाओं में खर्च बढ़ा कर इस गिरावट की भरपाई की है। इन योजनाओं की उपलब्धियाँ मोदी सरकार के दावों से बेहद कम हैं। उदाहरण के लिए, एनडीए सरकार ने 2019 में भारत को "खुले में शौच मुक्त" घोषित किया, लेकिन 2019-21 के एनएफएचएस-5 डेटा से पता चलता है कि लगभग 20% घरों में शौचालय की सुविधा नहीं थी।
अगर पुरानी और नई कल्याणकारी योजनाओं पर केंद्र सरकार का खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के हिस्से के रूप में समझने की कोशिश की जाए, तो पता चलेगा की मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद पहले की तुलना में योजनाओं पर खर्च गिर गया है। सिर्फ कोविड-19 संकट के दौरान एक संक्षिप्त वृद्धि हुई थी उसे छोड़कर खर्चा अटका हुआ है (ग्राफ नो 2 देखें)। मोदी सरकार अक्सर पुरानी योजनाओं का नाम बदल कर उन्हें अपनी योजना बनाने की कोशिश करती है, और पुरानी योजनाओं को खतम करके अपनी योजना से बदल लेती है। यह चीज़ यूपीए सरकार के तहत हुए सामाजिक सुरक्षा के बदलावों के विपरीत है। एनडीए सरकार अपने उदार कल्याण खर्च के लिए लोगों के बीच जानी जाती है, लेकिन यह दावा आंकड़ों एवं तथ्यों में नहीं दिखता है।
Comments
Post a Comment
NOTE: While there is no bar on viewpoint, comments containing hateful or abusive language will not be published and will be marked spam. -- Editor