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रैंकिंग: अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत गिरा, इस साल भी यह गिरवाट जारी

- प्रमोद रंजन* 

अप्रैल, 2024 में भारतीय विश्वविद्यालयों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उच्च रैंकिंग की चर्चा रही। मीडिया ने इसका उत्सव मनाया। लेकिन स्थिति इसके विपरीत है। वैश्विक विश्वविद्यालय रैंकिग में अच्छा स्थान मिलने की खबरें, कुछ संस्थानों को इक्का-दुक्का विषयों में मिले रैंक के आधार पर चुनिंदा ढंग से प्रकाशित की गईं थीं। वास्तविकता यह है कि हाल के वर्षों में हमारे अधिकांश विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत गिर गया है। इस साल भी यह गिरवाट जारी रही है।
वैश्विक स्तर पर विश्वविद्यालयों की रैंकिंग करने वाली दो प्रमुख एजेंसियां हैं। इनमें से एक है ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’, जो लंदन स्थित निजी एजेंसी ‘क्वाक्वेरेली साइमंड्स’ (क्यूएस) द्वारा की जाती है। इसे 2004 में ‘क्वाक्वेरेली साइमंड्स’ और  प्रतिष्ठित पत्रिका ‘टाइम्स हायर एजुकेशन’ ने मिलकर शुरू किया था। उस समय इसे “टाइम्स हायर एजुकेशन-क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग” कहा जाता था। 2009 में ये कंपनियां अलग हो गईं और अपनी-अपनी रैंकिंग बनाने लगीं। क्वाक्वेरेली साइमंड्स ने ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ बनाना जारी रखा, जबकि टाइम्स हायर एजुकेशन ने ‘टाइम्स यूनिवर्सिटी रैंकिंग’ बनानी शुरू की। 
इन दोनों संस्थाओं द्वारा की गई रैंकिंग की चर्चा दुनिया भर में होती है। हालांकि रैंकिंग केवल एक मापदंड है। यह शिक्षा की वास्तविक गुणवत्ता की संकेतक नहीं है। इन रैंकिंग की प्रणालियों पर दुनिया भर में सवाल उठते रहे हैं। लेकिन यह तो है कि उच्च रैंकिंग वाले विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए रोजगार की बेहतर संभावनाएं उपलब्ध होती हैं, और विश्वविद्यालयों को मिलने वाले कई किस्म के वित्तीय अनुदानों और शोध-संबंधी समझौतों पर इसका असर पड़ता है।
रैंकिंग के लिए संबंधित विश्वविद्यालय को एजेंसी के पास अपने आंकड़े भेजने होते हैं, जिसका सत्यापन वे विभिन्न प्रणालियों से करती हैं। पहले कम ही भारतीय विश्वविद्यालय रैंकिंग के लिए अपने आंकड़े भेजते थे; लेकिन इधर के वर्षों में आंकड़े भेजने वाले भारतीय विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ी है। दरअसल, सरकार की दिलचस्पी हालत को ठीक करने की बजाय ऐसे आंकड़े पेश करने में है, जिससे हालत को बेहतर दिखाया जा सके।
पिछले महीने जिस रैंकिंग की चर्चा रही, वह क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग (क्यूएस वैश्विक विश्वविद्यालय रैंकिंग) है। भारतीय मीडिया में प्रकाशित खबरों में बताया गया इस रैंकिंग के अनुसार भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति के बेहतर हो रही है और हमारे विश्वविद्यालय दुनिया के चोटी के विश्वविद्यालयों में शरीक हो गए हैं। 
देश में शिक्षा का स्तर ऊंचा हाेने की खबर से किसे खुशी नहीं होगी? लेकिन दुःखद है कि मीडिया संस्थानों ने न सिर्फ रैंकिंग के आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर सिर्फ चुनिंदा अंशों को प्रकाशित किया है, बल्कि उनकी भ्रामक व्याख्या भी की है।
मसलन, सभी अखबारों ने लिखा है कि “रैंकिंग में बीते वर्ष के मुकाबले इस वर्ष भारतीय विश्‍वविद्यालयों की सहभागिता 19.4 प्रतिशत अधिक रही है।” गोया, यह शिक्षा में किसी प्रगति का सूचक हो। जबकि इसका आशय सिर्फ इतना है कि पहले की तुलना में अधिक विश्वविद्यालयों ने रैंकिंग करने वाली ऐजेंसी को अपने आंकड़े दिए हैं। यह कोई ऐसी उल्लेखनीय बात नहीं है, जिसे किसी समाचार में प्रमुखता से जगह दी जानी चाहिए। खबर इस पर केंद्रित होनी चाहिए थी कि भारतीय विश्वविद्यालयों का समग्र प्रदर्शन बढ़ा है या घटा है?
अखबारों में इस संबंध में भारत के शिक्षा मंत्रालय का बयान भी प्रकाशित हुआ, जिसमें मंत्रालय ने कहा कि “इन विशिष्टताओं को हासिल कर भारत शिक्षा जगत के वैश्विक मानचित्र पर स्थापित हो गया तथा इसके भारत के सभी उच्च शिक्षा संस्थान बधाई के पात्र हैं।” शिक्षा मंत्री के बयान के दो सप्ताह बाद, भारत में हो रहे लोकसभा चुनावों के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विट किया कि क्यूएस रैंकिंग को “देखना उत्साहवर्धक है! हमारी सरकार बड़े पैमाने पर अनुसंधान, शिक्षण और नवाचार पर ध्यान केंद्रित कर रही है। आने वाले समय में हम इस पर और जोर देंगे, जिससे हमारी युवा शक्ति को लाभ होगा।”
लेकिन वास्तविकता क्या है?

खबरों के शीर्षक

रैंकिंग में भारत की वास्तविक स्थिति देखने से पहले इससे संबंधित प्रकाशित समाचारों के शीर्षकों पर एक नजर डाल लेना, इस विडंबना को समझने के लिए आवश्यक होगा। ये सभी खबरें 10 से 13 अप्रैल, 2024 के बीच प्रकाशित हुई हैं।
  • दैनिक जागरण :-  “क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में 69 भारतीय संस्थानों को मिली जगह, जेएनयू शीर्ष पर”
  • पंजाब केसरी :- “क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग : भारत के 69 संस्थान को मिली जगह, जेएनयू 20वें स्थान पर”
  • दैनिक हिंदुस्तान :- “क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में आईआईटी, बीएचयू 6 पायदान चढ़ा, टॉप 10 भारतीय संस्थानों में शामिल”
  • एनडीटीवी (वेबसाइट) :- “क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में भारत के कई आईआईएम टॉप-50 में शामिल, दिल्ली यूनिवर्सिटी का रहा जलवा”
  • राजस्थान पत्रिका :- “क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में भारत की यूनिवर्सिर्टियों का दबदबा, आईआईएम, आईआईटी, जेएनयू समेत कई कॉलेज टॉप-5 में”
  • अमर उजाला :- “डाटा साइंस और एआई में देश में दूसरे नंबर पर आईआईटी, क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में मिली 93वीं रैंक”
  • टाइम्स ऑफ इंडिया :- विषयवार क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2024 : 69 भारतीय विश्वविद्यालय वैश्विक रैंकिंग सूची में शामिल
  • इंडियन एक्सप्रेस :- “विषयवार क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2024 : जेएनयू भारत का सर्वोच्च रैंक वाला विश्वविद्यालय, शीर्ष 500 में 69 भारतीय विवि”
  • हिंदू :- “क्यूएस रैंकिंग : जेएनयू भारत का शीर्ष विश्वविद्यालय, प्रबंधन अध्ययन में आईआईएम-अहमदाबाद दुनिया में 25 वें स्थान पर”
  • हिंदुस्तान टाइम्स :- “क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग: ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी भारत में नंबर एक लॉ स्कूल, विश्व स्तर पर 72वें स्थान पर”
इन शीर्षकों में आप देखेंगे कि अधिकांश अखबारों ने इस पर बल दिया है कि भारत के 69 विश्वविद्यालय रैंकिंग में शामिल हो गए। जबकि जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि यह तथ्य खबर के लायक ही नहीं है। कुछ शीर्षकों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) को दुनिया के विश्वविद्यालयों में 20वें स्थान पर बताया गया है। कुछ ने लिखा है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) ‘टॉप’ पर रहा है, तो किसी ने लिखा है कि भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) और दिल्ली यूनिवर्सिटी का ‘जलवा’ रहा। हिंदी अखबारों की तुलना में अंग्रेजी अखबरों के शीर्षक कुछ तथ्यपरक हैं, क्योंकि उनमें कहा गया है कि स्थान ‘विषयवार’ रैंकिंग में मिला है। किंतु, सभी हिंदी-अंग्रेजी अखबारों का भाव है कि भारतीय विश्वविद्यालयों का स्तर बढ़ा है और उन्हें विश्वस्तरीय पहचान मिली है। 
वस्तुत: उन्हें क्यूएस रैंकिंग में विषयवार सूची में रैंक प्राप्त हुई है, न कि समग्र मूल्यांकन सूची में।
भारतीय विश्वविद्यालयों की गिरती हालत रैंकिंग करने वाली दोनों एजेसियों की रिपोर्ट्स में उजागर हुई है। 2024 की जिस क्यूएस रैंकिंग का हवाला ये अखबार दे रहे हैं, वह भी इस मामले में अपवाद नहीं है। इसमें भी सिर्फ इंस्टीट्यूट्स ऑफ एमिनेंस (IoE) में शामिल आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों का समग्र रैंक मामूली-सा बढ़ा है। क्यूएस से इतर ‘टाइम्स रैंकिग’ में इन आईआईटी संस्थान की भी  रैंकिंग में गिरवाट दर्ज की गई है।
यही कारण है कि आईआईटी संस्थानों ने टाइम्स रैंकिंग के लिए आंकड़े देने बंद कर दिए हैं और कुछ सालों से इसका बहिष्कार कर रखा है। 
क्यूएस और टाइम्स रैंकिंग में अन्य विश्वविद्यलयों का स्कोर तो खैर रसातल की ओर बढ़ता गया है। यह गिरावट ऐसी नहीं है, जिसे किसी भी प्रकार से अनदेखा किया जा सके।
पिछले महीने कुछ खबरें ऐसे प्रकाशित की गई हैं, जिन्हें पढ़कर पाठक को लगेगा कि जेएनयू दुनिया में 20वां सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय बन गया है। जबकि वास्तव में जेएनयू को “डेवलपमेंट स्टडीज” नामक विषय में 20वां स्थान मिला है। समग्र रूप से विश्वविद्यालय की रैंकिंग गिरी है। क्यूएस रैंकिग में जेएनयू पहली बार 2005 में शामिल हुआ था, उस साल वह दुनिया में 192वें स्थान पर रहा था। 2006 से 2021 तक जेएनयू ने इस रैंकिंग में भाग नहीं लिया। 2021 में उसने रैंकिंग के लिए फिर से आंकड़े जमा किए। साल 2022 में वह 566वें स्थान पर रहा। और इस साल 2024 में यह 606वें स्थान पर पहुंच गया है। किसी अखबार ने विश्वविद्यालयों की इस समग्र रैंकिंग को नहीं बताया।
किसी एक विषय में भी किसी संस्थान को अच्छी रैंक मिलती है, तो यह खुशी की बात है; लेकिन सिर्फ इसे ही आधार बनाकर खबरों का प्रकाशित होना या स्वयं कुलपति द्वारा इसे “सर्वोच्च स्थान प्राप्त करके भारत को गौरवान्वित” करने की बात करना छल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 
सिर्फ एक विषय में अच्छे प्रदर्शन से विश्वविद्यालय का स्तर नहीं मापा जा सकता। जैसा कि नालंदा विश्वविद्यालय, राजगीर के पूर्व कुलपति मनोज मोहन कहते हैं- “डेवलपमेंट स्टडीज विषय की पढ़ाई दुनिया के बहुत कम विश्वविद्यालयों में होती है, इसलिए अगर जेएनयू को किसी खास विषय में 20वां स्थान मिला, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात? अगर भारत के किसी विश्वविद्यालय को डोगरी भाषा की पढाई मे विश्व में पाँचवां स्थान मिलता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह वर्ल्ड रैंकिंग के अनुसार दुनिया का पाँचवां सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। जेएनयू के कुछ शिक्षकों के शोध का स्तर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का है; लेकिन यह भी हकीकत है कि वहां बहुत-से, विशेष तौर पर हाल के वर्षों में नियुक्त शिक्षक औसत मेधा के हैं।” 
वस्तुत: क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग : 2024 में विश्व स्तर पर 20वीं रैंक किसी भी विश्वविद्यालय को नहीं मिली है। रैंकिंग में 19वें स्थान पर आस्ट्रेलिया के दो विश्वविद्यालयों- सिडनी विश्वविद्यालय और न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय हैं; क्योंकि विभिन्न पैमानों पर दोनों का प्रदर्शन समान रहा है। 21वें स्थान पर कनाडा का टोरोन्टो विश्वविद्यालय है।
सिडनी विश्वविद्यालय, न्यू साउथ वेल्स और टोरोन्टो विश्वविद्यालय का ‘अकादमिक प्रतिष्ठा प्राप्तांक’ 90 से ज्यादा है; जबकि जेएनयू का ‘अकादमिक प्रतिष्ठा प्राप्तांक’ महज 29.1 है। 
विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों और भारतीय विश्वविद्यालयों में इन मामलों में पहले से फासला रहा है, जो हाल के वर्षों में बहुत तेजी से बढ़ा है। 

इन भ्रामक खबरों का उत्स कहां है?

पिछले तीन वर्षों से क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में भारत के विश्‍वविद्यालयों का स्थान बढ़ने की ऐसी ही भ्रामक खबरें प्रकाशित हो रही हैं। इसलिए यह देखना आवश्यक है कि इसका उत्स (स्रोत) कहां है?
इन खबरों का स्रोत संभवत: स्वयं क्यूएस रैंकिंग के अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया के कार्यकारी निदेशक डॉ. अश्विन फर्नांडीस हैं। उन्होंने इस साल “नई क्यूएस रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए उत्साहजनक रुझान”  शीर्षक से ‘प्रेस नोट’ की शैली में एक पोस्ट लिखी, जो क्यूएस की वेबसाइट पर प्रकाशित है। इसमें उन्होंने भारतीय विश्वविद्यालयों की गिरती स्थिति के बारे में कुछ नहीं बताया, बल्कि तथ्यों को छुपाते हुए गोलमोल भाषा में कुछ चुनिंदा चीजों की तारीफ की है। बाद में यही बातें भारतीय अखबारों की सुर्खियां बनीं। 
डॉ. अश्विन फर्नांडीस क्यूएस रैंकिंग के बहुत-ही जिम्मेदार पद पर हैं। इसके साथ वे भारत में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले एक एनजीओ “पैक्ट” के संस्थापक भी हैं। उनके एनजीओ की वेबसाइट पर उनके परिचय में लिखा गया है कि “डॉ. अश्विन फर्नांडीस भारतीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों की वैश्विक रैंकिंग और रेटिंग बढ़ाने के लिए भारत सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। वह भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाने के सपने को साकार करने की दिशा में लगन और भावुकता से काम कर रहे हैं।” वेबसाइट पर उनके परिचय में यह भी लिखा है कि “डॉ. अश्विन ने 2021 में क्यूएस रैंकिंग करने वाली संस्था के मालिक श्री नुंजियो क्वाक्वेरेली को भारत में आमंत्रित करने और माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी बैठक करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।”
इस तरह की भाषा और एनजीओ के नाभिनालबद्ध हित कई ऐसी संभावनाओं की ओर संकेत करते हैं, जिन्हें इन दिनों राजनीति में ‘मैच फिक्सिंग’ कहा जाता है।

अकादमिक आजादी का स्तर 

पिछले साल केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने ट्वीट कर कहा था कि "यह गर्व की बात है कि 2014 के बाद से भारतीय विश्वविद्यालयों ने क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में सुधार किया है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की दूरदर्शिता का ही परिणाम है।"
मंत्री का यह बयान न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि वे विश्वविद्यालयों की अवधारणा को नहीं समझते हैं। विश्वविद्यालयों को ज्ञान के चिरंतन केंद्र के रूप में स्थापित किया गया है, न कि राजनीति और सत्ता पर  निर्भर उसके उपकरण के रूप में। उन्हें स्वायत्त संस्थानों के रूप में कार्य करने और राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
विश्वविद्यालयों को राष्ट्रीय हितों से भी परे होकर सार्वभौमिक ज्ञान की सेवा करनी है। वे ‘विश्व’ विद्यालय हैं, वैश्विक चिंतन के केंद्र। यूनिवर्सिटी का ‘यूनिवर्स’ लैटिन से आया है, जिसका अर्थ सार्वभौमिक होता है। यह ब्रह्मांड के अर्थ में भी है। उसकी परिकल्पना ब्रह्मांड के बारे में विचार करने वाले बौद्धिकों केंद्र के रूप में है।
भारत में इनकी स्वायत्तता समाप्त करने की कोशिशें लगतार की जा रही हैं। पठन-पाठन और शोध संबंधी स्वतंत्र सोच को नष्ट किया जा रहा है। उन्हें धर्म और राष्ट्र की संकीर्णताओं अवधारणाओं में कैद करने की कोशिश हो रही है। हर विश्वविद्यालय में भय का माहौल है, जो पिछले एक दशक से निरंतर बढ़ता जा रहा है।
इसे समझने के लिए “एकेडमिक फ्रीडम इंडेक्स” (शैक्षिक स्वतंत्रता सूचकांक) में भारत की स्थिति को देखना उपयोगी होगा। यह भी एक विश्वस्तरीय सर्वेक्षण है।
एकेडमिक फ्रीडम इंडेक्स-2023 में भारत की स्थिति 179 देशों में सबसे निचले 20 से 30 प्रतिशत में थी। यह रैंकिंग नाइजीरिया और केन्या जैसे गरीब देशों और नेपाल, भूटान और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों से भी कम थी। 07 मार्च, 2024 को इस रिपोर्ट का अद्यतन संस्करण जारी किया गया है, जिसमें भारत सबसे निचले 10-20 प्रतिशत की श्रेणी में पहुंच गया है। इस श्रेणी में रवांडा और दक्षिण सूडान जैसे देश हैं।
इस इंडेक्स में क्रम का निर्धारण इन पाँच संकेतकों के आधार पर किया जाता है - 1.शोध और शिक्षण में स्वतंत्रता, 2. ज्ञान और विचारों को प्रसारित करने की आज़ादी, 3. विश्वविद्यालयों की संस्थागत स्वायत्तता, 4. कैंपस में शिक्षा और संस्कृति से जुड़े विचारों को खुलकर व्यक्त करने की आज़ादी और अकादमिक नैतिकता का पालन और 5. शैक्षणिक परिसर में किसी शिक्षक और विद्यार्थियों की निजता का सम्मान और किसी भी उपकरण (कैमरा आदि) से उनकी अनावश्यक निगरानी न किया जाना।
यह एक व्यापक इंडेक्स है, जिसमें दुनिया के अधिकांश देशों के सन् 1900 से लेकर 2023 तक के आंकड़े देखे जा सकते हैं। इस इंडेक्स में पैमाना शून्य से एक (0 से 1) बीच होता है, जिसमें एक (1) सर्वोच्च अंक होता है। सूचकांक के 2024 अपडेट में चेक गणराज्य को 0.97 अंक मिले हैं, जो सर्वाधिक हैं। यानी इस इंडेक्स के अनुसार, चेक में सर्वाधिक अकादमिक स्वतंत्रता है। इसके अलावा इटली को 0.95 अंक मिले हैं, स्वीडन को 0.94 अंक और अमेरिका को 0.69 अंक। सबसे कम अकादमिक स्वतंत्रता वाला देश उत्तरी कोरिया है, जिसका अंक महज 0.1 है। दुनिया में सबसे कम अकादमिक स्वतंत्रता वाले अन्य देशों में अफगानिस्तान (0.9 अंक), चीन (0.7 अंक), दक्षिण सूडान (0.13), रवांडा (0.18) और भारत (0.18 अंक) शामिल हैं। 
भारत की स्थिति पहले ऐसी नहीं थी। आजाद भारत शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र में स्वतंत्रता की ओर तेज कदमों से बढ़ा था। विचारों की खुली अभिव्यक्ति, बहस और तर्क-वितर्क, नवाचार और खोज की भावना, ये सभी तत्त्व उस युग की विशेषता थे। विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षण संस्थान न केवल ज्ञान के केंद्र थे, बल्कि सामाजिक परिवर्तन और प्रगति के अग्रदूत भी थे। अकादमिक स्वतंत्रता के मामले में आजाद भारत के स्वर्णिम इतिहास और उसके पतन की झलक देखना व्यथाजनक अनुभव है।
परतंत्र भारत अकादमिक रूप से भी गुलाम था। एकेडमिक फ्रीडम इंडेक्स में 1900 से लेकर 1946 तक भारत का अंक लगातार 0.13 रहा, जो कि विश्व के अन्य देशों से बहुत नीचे था। इस अवधि में इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया। गुलाम भारत में उच्च शिक्षा को अंग्रेज शासकों ने अपने हित के लिए नियंत्रित कर रखा था। 
अकादमिक स्वतंत्रता बढ़ी थी, वह दिखाता है कि हम देश के नव-निर्माण के लिए कितनी ताकत और उत्साह के साथ आगे बढ़े थे। 1950 में भारत का अकादमिक स्वतंत्रता सूचकांक 0.64 पर पहुंच गया। महज तीन साल में लगभग पाँच गुनी बढ़ोतरी। 1950 से लेकर 1974 तक यह 0.63 से 0.64 के बीच रहा। उसके बाद आया कुख्यात आपात-काल, जो 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक; यानी 21 महीने चला। इस अवधि में अकादमिक स्वतंत्रता को भी कुचला गया। आपात-काल में यह सूचकांक गिरकर 0.30 पर पहुंच गया। आपात काल समाप्त होते ही भारतीय विश्वविद्यालयों ने फिर से रोशनी की नई किरणें देखीं। प्राकृतिक विज्ञान और मानविकी, सभी अनुशासनों के बौद्धिकों ने इस मुक्ति का जश्न मनाया। आपातकाल समाप्त होते ही अकादमिक आजादी के सूचकांक ने भी छलांग लगाई और 1979 में यह फिर से 0.64 पर पहुंच गया। इसके बाद यह 2012 तक 0.62 से लेकर 0.69 के बीच रहा। 1990 से 1995 के बीच तक, यह अब तक के अपने सर्वोच्च स्तर (0.69) पर था। यानी इस सूचकांक के अनुसार, 1990 से 1995 के बीच भारत में आकदमिक आजादी सबसे अधिक थी।
2014 में नई सरकार आते ही यह सूचकांक भी गड़ाप से गिरा। रिपोर्ट में इसका मुख्य कारण मौजूदा सत्ताधारी दल के द्वारा किए गए सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण को बताया गया है, जो कि निरंतर बढ़ता ही गया। 2024 में यह 0.18 पर पहुंच गया। यह न सिर्फ आपाल-काल के समय से भी बहुत नीचे है, बल्कि अंग्रेजों की गुलामी के काल में पहुंचने में अब भी सिर्फ 0.05 अंक की फिसलन बाकी है। अगर राजनीतिक स्थितियां नहीं बदलीं, तो आने वाले वर्षों यह किस अंक पर पहुंचने वाला है, इसकी कल्पना सिहरन पैदा करती है।
इस मामले में एक और बात गौर करने लायक है। वह यह कि एकेडमिक फ्रीडम इंडेक्स-2024 की रिपोर्ट क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग-2024 की रिपोर्ट से एक महीना पहले, यानी मार्च, 2024 के पहले सप्ताह में ही यह जानकारी सामने आ गई थी। लेकिन किसी भी प्रमुख हिंदी अखबार ने इसे प्रकाशित नहीं किया। अधिकांश अंग्रेजी अखबारों में भी यह खबर नहीं थी। 
समझना होगा कि एक ओर सही खबरों को प्रकाशित नहीं होने दिया जा रहा है, तो दूसरी ओर झूठी और भ्रामक खबरों का प्रकाशन निरंतर बढ़ रहा है।
भारत में प्रेस की यह स्थिति उन ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ वैश्विक सर्वेक्षणों की याद दिलाती है, जिनके अनुसार भारत में प्रेस की आजादी भी समाप्ति की ओर बढ़ रही है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि अकादमिक स्वतंत्रता से किसी देश के न सिर्फ अकादमिक-जगत की गुणवत्ता और जनपक्षधरता से सीधा संबंध होता है, बल्कि आजादी ही वह सर्वश्रेष्ठ मूल्य है, जिसके लिए मनुष्य अनंतकाल से राजनीतिक-सामाजिक संघर्ष करता रहा है। 
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*लेखक व शिक्षाविद प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और तकनीक के समाजशास्त्र में है। संप्रति, पूर्वोत्तर भारत की एक यूनिवर्सिटी में शिक्षणकार्य व स्वतंत्र लेखन करते हैं। लेख समयांतर के मई, 2024 अंक में प्रकाशित

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આપણો દેશ 2014માં ફરીથી મનુવાદી પરિબળોની સામાજિક, રાજકીય ગુલામીમાં બંદી બની ચૂક્યો છે

- ઉત્તમ પરમાર  આપણો દેશ છઠ્ઠી ડિસેમ્બર 1992ને દિવસે મનુવાદી પરિબળો, હિન્દુમહાસભા, સંઘપરિવારને કારણે ગેર બંધારણીય, ગેરકાયદેસર અને અઘોષિત કટોકટીમાં પ્રવેશી ચૂક્યો છે અને આ કટોકટી આજ દિન સુધી ચાલુ છે. આપણો દેશ 2014માં ફરીથી મનુવાદી પરિબળો, હિન્દુ મહાસભા અને સંઘ પરિવારની સામાજિક અને રાજકીય ગુલામીમાં બંદીવાન બની ચૂક્યો છે.

निराशाजनक बजट: असमानता को दूर करने हेतु पुनर्वितरण को बढ़ाने के लिए कोई कदम नहीं

- राज शेखर*  रोज़ी रोटी अधिकार अभियान यह जानकर निराश है कि 2024-25 के बजट घोषणा में खाद्य सुरक्षा के महत्वपूर्ण क्षेत्र में खर्च बढ़ाने के बजाय, बजट या तो स्थिर रहा है या इसमें गिरावट आई है।

केंद्रीय बजट में कॉर्पोरेट हित के लिए, दलित/आदिवासी बजट का इस्तेमाल हुआ

- उमेश बाबू*  वर्ष 2024-25 का केंद्रीय बजट 48,20,512 करोड़ रुपये है, जिसमें से 1,65,493 करोड़ रुपये (3.43%) अनुसूचित जाति के लिए और 1,32,214 करोड़ रुपये (2.74%) अनुसूचित जनजाति के लिए आवंटित किए गए हैं, जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की योजनाओं के अनुसार उन्हें क्रमशः 7,95,384 और 3,95,281 करोड़ रुपये देने आवंटित करना चाहिए था । केंद्रीय बजट ने जनसंख्या के अनुसार बजट आवंटित करने में बड़ी असफलता दिखाई दी है और इससे स्पष्ट होता है कि केंद्र सरकार को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की समाजिक सुरक्षा एवं एवं विकास की चिंता नहीं है|