सत्तर के बाद वाले दशक में जब हम लोग साहित्य में प्रवेश कर रहे थे तब दाढ़ी रखने, बेतरतीबी से कपड़े पहनने और फक्कड़पन का जीवन जीने वाले लोग बेहतर लेखक हुआ करते थे या बेहतर समझे जाते थे। नयी सदी में चिकने-चुपड़े, बने-ठने और खर्चीला जीवन बिताने वाले सम्मान के हक़दार हो चले हैं। यह फ़र्क़ जनवादी उभार और भूमण्डलीय उदारीकरण के बीच का सांस्कृतिक अंतर उजागर करता है।
सत्तर के दशक में बड़े-बड़े रचनाकरों की पलटन थी। उनमेँ से अच्छे-बुरे लेखक का भेद करना हम लोग अध्ययन और अनुभव से सीख रहे थे। उत्तर-भूमंडलीय दौर में वैसे बड़े लेखक हैं नहीँ और युवाओं में दूसरों की रचना पढ़ने का धैर्य कम हो रहा है। भले महत्वपूर्ण वरिष्ठ लेखक ही क्योँ न होँ, युवाओं की अभिरुचि अपनी पकी-अधपकी रचना पढ़वाने में ज़्यादा है।
सत्तर के दशक मेँ हम एक-दूसरे के साथ संवाद और बहस करते हुए अपना विकास करते थे, उत्तर-भूमण्डलीय दौर मेँ नये से नये रचनाकार को केवल अपनी प्रशंसा स्वीकार है, कमी निकाली नहीँ कि गये काम से!
सत्तर के दशक मेँ लघु पत्रिकाओँ मेँ छपना मान्यता और प्रसिद्धि के लिए मूल्यवान होता था इसलिए 'धर्मयुग' मेँ छपने वाले लेखक मुड़कर लघु पत्रिकाओँ की ओर आये। उत्तर-भूमंडलीय दौर में वैसी आन्दोलनपरक लघु पत्रिकाएँ रही नहीँ, रचनाकरों को उनकी ज़रूरत भी नहीँ है, सोशल मीडिया हर मंच का विकल्प और स्थानापन्न है।
सत्तर के दशक मेँ विचारधारा का महत्व बहुत अधिक था। उत्तर-भूमण्डलीय दौर मेँ अस्मिता ने उसका स्थान ले लिया है। विचारधारा का मोल था तो रचनाओँ का मूल्यांकन भी होता था, अस्मिता का समय है तो मूल्यांकन के बदले अनुमोदन और भर्त्सना रह गयी है। मूल्यांकन के लिए रचना की विषयवस्तु और कलात्मक प्रयोग, रचना का सामाजिक सन्दर्भ और मनोवैज्ञानिक प्रभाव, परम्परा से सम्बंध और नवीनता मेँ योगदान आदि अनेक पक्षों पर ध्यान देना आवश्यक था।
यह सब एक विवेक की माँग करता था। अस्मिता के लिए इसमेँ से कुछ भी आवश्यक नहीं है। आप मेरे जाति या धर्म के हैँ तो मुझे आपकी हर बात का समर्थन करना है। आप भिन्न जाति या धर्म के हैँ तो मुझे आपकी हर बात का विरोध करना है। विचारधारा के साथ विवेक की भूमिका यह थी कि मुझे अपनी ही नहीँ , दूसरे की मनोदशा को भी आत्मसात् करना पड़ता था। जिस लेखक मेँ यह परकायाप्रवेश जितना उच्च स्तर का होता था उसकी रचना उतनी चिरस्थायी होती थी। अस्मिता के लिए यह परकायाप्रवेश व्यर्थ है। मेँ अपनी पहचान तो खुद बनाऊँगा ही, दूसरे की पहचान भी मेँ ही निश्चित करूँगा! इसलिए पहले तटस्थता एक मूल्य था, अब चरम वैयक्तिकता वरेण्य है।
मेँ यह नहीँ मानता कि पहले सब अच्छा था, अब पतित है। इसे ऐतिहासिक दृष्टि से परिवर्तन कहना उचित है। जैसे वाल्मीकि की ऊँचाई पर कोई दूसरा नहीँ पहुँचा वैसे भवभूति की उदात्तता तक और कालिदास के सौंदर्य बोध तक कोई दूसरा नहीँ पहुँचा। अस्मितवादियों के गाली देने पर भी तुलसीदास के काव्यात्मक धरातल तक कोई दूसरा नहीँ पहुँचा, निराला के करुणा-सौंदर्य-औदात्य तक दूसरा नहीँ पहुँच पाया। फिर भी वाल्मीकि से निराला तक साहित्य का विकास होता आया है।
यह क्रम आगे भी चलेगा। लेकिन तभी जब हम उत्तेजना से नहीँ, विवेक से परिचालित होकर प्रयत्न करेंगे। परन्तु यही विवेक तो अस्मिता, बाजार, युद्ध, मुनाफ़े के बीच सबसे ज़्यादा शिकार बन रहा है!
मित्रों से अपेक्षा है कि इस अनुभव में नए पहलू जोड़ें।
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*स्रोत: फेसबुक
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